रविवार, 23 सितंबर 2012

ममता - अड़ियल या जुझारु ??

बेहद साधारण और सस्ती सूत की साड़ी और उससे भी सस्ती हवाई चप्पल पहने राजनीति के गलियारों में हुंकार भरती किसी महिला के बारे में गर पूछा जाए तो बेशक कोई भी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का ही नाम लेगा....ममता भारतीय राजनीति में अपनी एक अलग पहचान रखती हैं....सीधे शब्दों में कहें तो हमारे राजनीतिक धरातल पर इकलौती सिंहनी नज़र आती हैं....सिर्फ गरजती ही नही.... बरसती भी हैं..... लेकिन हालफिल्हाल ये कहा जा रहा है कि वो ग़रीबों की हिमायती और वैश्वीकरण की विरोधी नज़र आना चाहती हैं. सवाल है कि आखिर वजह क्या है....अपना विरोध दर्ज कराना....सरकार से समर्थन वापस लेना.... ये सिर्फ ममता की गरमजोशी है....अस्तित्व को बचाए रखने की एक कवायद है या फिर कहीं गहरे कुछ औऱ भी सिमटा है ....जिसे वाकई कुरेदकर बाहर लाने की जरुरत है.... हालांकि ममता की ये तुनकमिजाजी नहीं सख्तमिजा़जी ही कही जाती है...जिससे भारतीय राजनीति मे शायद ही कोई नावाकिफ हो ....साथ ही ममता कितनी गहरी हैं इसका परिचय भी वो गाहे बगाहे देती ही रहती हैं.......ममता के फौलादी तेवर यकीनन उन्हें उनकी राह पर आगे बढ़ाते ही आए हैं लेकिन साथ ही साथ उनकी शख्सियत के साथ तमाम विशेषण भी जोड़ते रहे हैं.... उनकी शख्सियत का यही पहलू सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर ममता अड़ियल हैं या फिर जुझारू....?? सवाल छोटा है पर गहरा है.... पश्चिम बंगाल के ही राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह ममता की रणनीति का एक हिस्सा है और साथ ही जरुरत भी क्योंकि मां,माटी और मानुष की हिमायती बन राजनीति में एक एक पग भरने वाली ममता अगर अपनी बुनियाद को ही छोड़ राजनीतिक दावंपेच में फंस जाएंगी तो शायद एक दिन वामपंथियों जैसे ही हश्र का शिकार बनेंगी.....बहुत सीधे शब्दों में कहे तो मां..माटी...मानुष का नारा लेकर ही वो अपने विरोधियों यानि वामपंथियों की अपेक्षा जनता के ज्यादा करीब जा सकती है भले ही इसके लिए केद्र की सत्ता में उनके पक्ष में समीकरण बनें या नहीं....और यही वो वजह भी है जिसके चलते उन्होंने खुदरा क्षेत्र में विदेशी पूँजी निवेश के सवाल पर केंद्र से तृणमूल कांगेस का समर्थन वापस ले लिया है....इसे ममता की दूरदर्शिता का ही एक हिस्सा माना जा रहा है...और भले ही इसके लिए उन्हें भविष्य के लिए विकास गामी आर्थिक नीतियों का विरोध ही क्यों ना करना पड़े... दरअसल पश्चिम बंगाल में मिली दमदार जीत ने कहीं ना कहीं ममता के भीतर कहीं गहरे ये बात बैठा दी है कि एकमात्र वोही गरीबों की हिमायती औऱ हितैषी हैं...और इसी वजह से बंगाल की जनता ने उन्हें सिर आंखो पर बैठाया है....जिसके चलते ममता कुछ ऐसे भी फैसले लेती जा रही है..जो उनकी छवि पर हल्की फुल्की किरचें डाल रहे हैं....फिर चाहें वो प्रोफेसर की गिरफ्तारी का मसला हो....कार्टूनिस्ट पर प्रतिबंध लगाने जैसे फैसले हों या फिर निजी चैनल द्वारा आय़ोजित एक कार्यक्रम में सवाल पूछे जाने पर उसका बहिष्कार ही करना क्यो ना हो... लेकिन ये कोई पहला मामला नहीं जब ममता ने ऐसे तेवर दिखाएं हो....इसके पहले भी ममता कई बार गरजीं है....लेकिन हर बार बरसी नहीं....वो कब क्या कहेंगी ...क्या स्टैंड लेंगी ...इस बात का कयास लगाना तो काफी मुश्किल है लेकिन इससे उनके व्यक्तित्व को कम कर आंकना शायद मूर्खता ही कही जाए....इसीलिए जनता दल(यू)अध्यक्ष शरद यादव भी ये कहने से नहीं झिझकते कि जो लोग ममता बनर्जी के कद को फीते से नापने की कोशिश करते हैं वो कतई मूर्ख हैं.... ममता की छवि उनके हर कदम पर मजबूत हुई है....उनके कदम से राजनीतिक तौर पर उन्हे नफा हुआ या नुकसान इसकी परवाह किए बिना वो कई बार एक जुझारू औऱ सशक्त महिला के तौर पर सामने आईं.....शुरुवाती दौर में ही कांग्रेस के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव के ख़िलाफ़ वो कोलकाता की सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करती नजर आईं....जिसका खमियाजा भी उन्होने उठाया...जमीन के हक की लड़ाई में सिंगूर में टाटा की कार फ़ैक्ट्री का उन्होंने जमकर विरोध किया...और पुरजोर तरीके से ललकार भरी....साल 2000 में तेल की क़ीमत में इजाफे के विरोध में तत्कालीन एनडीए सरकार मे उन्होने रेलमंत्री का पद छोड़ने में गुरेज नहीं किया....इतना ही नहीं पश्चिम बंगाल को विशेष आर्थिक पैकेज नहीं मिलता देख उन्होंने बांग्लादेश से तीस्ता नदी पर संधि का समर्थन करने से भी साफ इनकार कर दिया था.... ममता ने हर कदम अपने फौलादी इरादों का मुजाहिरा पेश किया ..... लेकिन कहीं कहीं ममता के तेवरों में उस जुझारु पन को अड़ियल तेवरों में तब्दील होने की सुगबुगाहट भी नजर आ रही है ....जो उनके धुरविरोधी वामपंथियों की राह पर धकेलती नज़र आती है.. कहते हैं कि वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता.....और जो वक्त के साथ नहीं चल पाता वो या तो पीछे छूट जाता है या फिर अस्तित्व की लड़ाई में गुम हो जाता है.... कुछ ऐसा ही हुआ बंगाल में लाल सलाम के वर्चस्व के साथ जो लगातार तीन दशक तक सत्ता में बने रहने के बावजूद आज हाशिए पर जा पहुंचा.... वजह वही अड़ियल -ताना शाही रवैया और वक्त के साथ तालमेल का अभाव ....इसी के चलते लाल सलाम आज बंगाल की धरती के किसी हिस्से पर भी गूंजता सुनाई नहीं देता.... पश्चिम बंगाल के लोगो ने बड़ी उम्मीदों के साथ -परिवोर्तन- का नारा देकर ममता के हाथों अपना भविष्य सौंपा है.... और अब ये ममता के हाथ में है कि वो आम मानुष के हक की लड़ाई को आगे ले जाती हैं या फिर आम मानुष के हाथ में आई सत्ता की हनक की पराकाष्ठा पर पहुंचती हैं।

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

'ACT NOW'.....n......COPENHEGEN....

एक्ट नाओ.....यही नाम है...उस एनजीओ का जिसके लाइव कॉंसर्ट में कल जाना हुआ था....इस कॉंसर्ट को कराने का मक़सद महज़ लोगो को पर्यावरण के प्रति जागरुक बनाना था....ऐसा नहीं लगता कि कई बार वो सारी चीज़ें हमें जगा कर दिखायी जाती हैं...जिन्हें हम जान कर भी आंख मूंद लेने का बहाना कर लेते हैं....और फिर कबूतर की तरह सोच लेते हैं कि खतरा टल गया....तो कल एक बार फिर से जागे और देखा कि ये खतरा कितनी हद तक आगे बढ़ चुका है....थ्री चियर्स फॉर कोपेनहेगन भी हुआ...फिर कोपेनहेगन पर विस्तार से निगाह दौड़ायी तो कुछ शान्ति सी नहीं मिली और इसीलिए इसे लिखा...........


लगभग हफ्ते भर तक अब कोपेनहेगेन बिज़ी हो गया है...वजह है..... जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में दुनिया भर से आने वाले अलग अलग राष्ट्रो के अध्यक्ष....उनके डेलिगेट्स अपने अपने तरीके से अपना अपना पक्ष रखने वाले हैं....जी हां इस बैठक में 192 देशों के करीब 15 हज़ार प्रतिनिधि और राष्ट्राध्यक्ष पहुंच चुके हैं.....और बराक ओबामा की उपस्थिति काफी महत्वपूर्ण मानी जा रही है...इस सम्मेलन की अगर गहनता के साथ स्टडी की जाए तो एक तस्वीर साफ तौर पर उभर कर सामने आ रही है......यहां ऐसा कुछ नज़र नहीं आ रहा..जिससे लोग दुनिया की भलाई के लिए सोच रख रहे हों.....बात बहुत साफ है अगर जलवायु परिवर्तन की ये तलवार सबके सर पर समान रुप से नहीं लटक रही होती...तो ये सम्मिलित सम्मेलन भी नही होता...हम सब सिर्फ अपने अपने हितों की ही रक्षा करना चाहते है......

अब जबकि जलवायु परिवर्तन की समस्या भौगोलिक सीमाओं को पार कर वैश्विक समस्या बन गई है...इसलिए इसका समाधान भी वैश्विक तौर पर ही खोजा जा रहा है...लेकिन क्या ये सच नहीं है कि अति विकसित देश ही इस समस्या के जनक हैं.... लेकिन समाधान में वो उन सभी देशों को शामिल करना चाहते हैं, जो न तो इस समस्या के लिए जिम्मेदार हैं और न ही किसी किस्म के परिणामों को सहने की क्षमता रखते है.....शायद इसीलिए आज इसे अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का मुद्दा बना दिया गया है...

इस समस्या का कारण तलाशने के लिए बहुत ज्यादा अतीत में झांकने की ज़रुरत नहीं है....हम सब जानते हैं कि प्रकृति का नुक्सान,,,,नैसर्गिक संसाधनों का दोहन...अतिविकसित मह्त्वकांक्षाओं का प्रतिरुप ही है आज की ये ग्लोबल समस्या....चूंकि आज विकासशील देश भी एक उम्दा रफ्तार के साथ आगे बढ़ रहे हैं...इसलिए ग्लोबली और कलेक्टिवली इसके कारण भी तलाशे जा रहे हैं....क्योंकि अगर अभी नहीं तो कभी नहीं वाली स्थिति शायद आ चुकी है और इस समस्या का असर वैश्विक यानि कहीं कम तो कहीं ज्यादा....लेकिन असर पड़ेगा ज़रुर...ये तय है।
हालांकि कई मुद्दों पर इस सम्मेलन में चर्चा होने वाली है जिसमें पर्यावरण को बचाने के साथ साथ...संसाधनों का इस्तेमाल और हां धन...धन यानि कितनी धनराशि इसमें अपेक्षित है और कौन कौन से देश कितना एफॉर्ड कर सकते हैं...इस पर भी अवश्य ही चर्चा होगी....
हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि इससे पहले क्योटो प्रोटोकाल का क्या हश्र रहा है...क्योटो प्रोटोकॉल इस लिए इफेक्टिव नहीं रहा क्योंकि अमेरिका...यानि सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाला देश इसमें शामिल नहीं था....और ना ही इसे बाकी देशों के लिए मैनडेट्री बनाया गया था....
इस सम्मेलन के लिए भारत की चिंताएं अलग हैं और जायज भी हैं,लेकिन शायद चीन से भी बहुत कुछ सीखने की ज़रुरत है...अभी कुछ ही दिन पहले चीन ने पर्यावरण को सुधारने संबंधी चार कदमों की एक तरफा घोषणा करके...अपना दबाब कुछ हद तक कम करने की कोशिश ज़रुर की है....जिससे नैतिकता की आड़ लेकर वो अपना चेहरा ज़रुर ढक सके।
ये तय है कि यहां विकसित देश. अपनी जवाबदेही से बचने की कोशिश ज़रुर कर रहे हैं ..लेकिन साथ ही विकासशील देशों के शामिल होने से इस सम्मेलन की थोड़ी बहुत दिशा ज़रुर बदल सकती है.....ये सभी देश कहीं ना कहीं दबाब में हैं...जो अलग अलग तरह से जलवायु परिवर्तन का दंश झेल रहे हैं....चाहें बात अफ्रीकी देशों की हो...जहां रेगिस्तान अपने पांव पसार रहा है....या फिर पर्वतीय देश जहां ग्लेशियर पिघल रहे हैं.....कुछ ऐसे देश भी हैं....जहां बाढ़ का प्रकोप रहता है...चक्रवात पीछा नहीं छोड़ता.......और फिर मालद्वीव जैसे छोटे द्वीप भी हैं जो समुद्र तल से महज़ सात फीट ऊंचाई पर मौजूद हैं.....और समुद्र का जल स्तर बढ़ने पर सबसे पहले डूबने का खतरा भी झेल रहे हैं.....
कुल मिलाकर ये तो तय है कि इस सम्मेलन में ग्लोबली कई मुद्दों पर बातचीत हो सकती है...लेकिन ग्लोबली हम सब क्या कर रहे हैं..... हम सब की ज़िम्मेदारियां क्या बनती हैं......कितनी हद तक हम अपनी जिम्मेदारी निभा सकते हैं....क्या ऐसे कदम हैं जिन्हें उठाकर हम अपने पर्यावरण.....अपनी जलवायु....अपनी वन संपदा....अपने अस्तित्व को बचा सकते हैं...ये भी शायद उतना ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है जितना महत्व ये कोपेनहेगन सम्मेलन रखता है....शायद एक एक कर उठाया गया ये कदम हमारी आने वाली जैनरेशन को थोड़ा खुला आसमान और थोड़ी ज़मीन मुहैया करा सके............।।

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

दुख में पसरी ज़िंदगियां......

दुख एक ऐसा शब्द है...जो सिर्फ शब्द भर नहीं है और इससे कोई अछूता भी नहीं है..दुनिया मे कोई ऐसा शख्स नहीं...जिसे दुख ना हो या जिसने कभी दुख को जिया ना हो.....पर कितने अचम्भे की बात है कि इस दुख का कोई ओर छोर नहीं....इसके विस्तार को ना तो कोई माप ही पाया और ना ही कोई इसका निवारण कर पाया.....कहने को तो बड़ी बड़ी बातें लिखी होती है हमारे वेद पुराणों में...सिर्फ एक परमशक्ति के बारे में.....बड़े बड़े प्रवचन दिए जाते हैं प्रज्ञान पंडित और विद्वानों के द्वारा.....पर कोई पुरसुकून हालात पैदा नहीं कर पाते......किसी के दुख को बांट नहीं पाते.....शायद इस दुनिया में कोई भी दुख में डूबे व्यक्ति के मन की थाह नहीं ले पाता होगा.....और सवाल ये भी है क्या कोई दुख में डूबा व्यक्ति उस परम शक्ति में अपना ध्यान केन्द्रित कर पाता होगा.........

बहुत सारे सवाल उठते हैं हर रोज़ ज़हन में.....जिनका जवाब नहीं मिल पाता.... यहां ये सारी बातें इसलिए..... क्योंकि आदतन दुखी रहने वाले लोगो में शायद मैं भी शुमार हूं....पता नहीं क्या होता है....मैं जब भी घर से बाहर निकलती हूं तो रास्ते में मिलने वाली कई चीज़ें ऐसी होती हैं जो आंखों में नमी लाने के लिए काफी होती हैं.....और ऐसा मेरे साथ बचपन से होता आ रहा है......और फिर गुस्सा और भी बढ़ जाता है....जब प्रवचन मिलते हैं...भगवान की मरज़ी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता......भगवान बड़े दयालु हैं......भगवान किसी का बुरा नहीं चाहते......वगैरह वगैरह.......पर मेरा सवाल ये भी है......अगर ये ही भगवान की दुनिया है तो फिर ये दुनिया ऐसी क्यों है......शायद ग़रीबी से बड़ी ज़िल्लत और दर्द कुछ और नहीं......

मैंने आजतक भूख से बिलखते बच्चो को भगवान को दूध पिलाते नहीं देखा.....किसी के लिए रोटी की बरसात होती नहीं देखी.....कूड़ा बीनते बच्चों को किसी को रोकते नहीं देखा....मुझे भगवान दिखायी ही नहीं देता .....मुझे आज भी याद है जब भी हमारी गली में से देर रात कोई बारात गुज़र रही होती थी तो अपनी मां से ज़िद करके हम उसे देखने खड़े हो जाया करते थे.....पर ना मालूम क्यों उस बारात के बैंड-बाजे मुझे उतना प्रफुल्लित नहीं कर पाते थे जितना उदास उस बारात के साथ चलने वाले बच्चों को देख कर हो जाया करती थी....जो उस वक्त मेरी ही उम्र के रहते होंगे....लेकिन अपने कांधों पर लाइटों का बोझ लेकर चलने के लिए मजबूर थे.......

मुझे समझ नहीं आता मैं कहां जाऊं......क्या करुं....वो बच्चे आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ते....आज भी नज़र आ जाते हैं....सड़कों पर....ढाबों पर....सिग्नल पर....गाड़ी साफ करते......कचरा बीनते.....और कभी भीख मांगते......वो सारे के सारे बच्चे वो ही बच्चे होते हैं.....अपना बचपन खोते.....मेहनत मजदूरी करने को मजबूर होते.....बस सिर्फ शक्लें बदली सी होती हैं...और कुछ नहीं.........वो बच्चे मुझे आज भी उतना ही रुलाते हैं जितना बचपन में रुलाते थे......मैं तब भी उनके लिए कुछ करना चाहती थी...और आज भी करना चाहती हूं.....लेकिन शायद मेरे पास उतने साधन नहीं होते जिनसे मैं इनका बचपन इन्हें वापस दे सकूं......मुझे इन बच्चों को देखकर अपने घर में मौजूद बच्चों का चेहरा याद आता है.....कि उनकी ही तरह क्या ये ज़िद्द नहीं करना चाहते होंगे.....क्या इनकी इच्छाएं नहीं होती होंगी......क्या किस्मत ही सबकुछ हो जाती है ज़िंदगी में.............

अफसोस और बड़ा हो जाता है जब हर दुख एक दूसरे से बड़ा ही दिखायी देता है.....तब भी इतना ही दर्द होता है जब कोई बुज़ुर्ग नज़र आता है...रिक्शा खींचता.....मज़दूरी करता.......आंखों में दया की याचना लिए भीख मांगता......या फिर अपने ही बच्चों से तिरस्कृत किसी ओल्ड ऐज़ होम में ज़िंदगी बसर करने पर मजबूर होता.......क्योंकि उन बच्चों और बुज़ुर्गों में मुझे अपने घर पर मौजूद बच्चे और बुज़ुर्ग नज़र आते हैं जिनकी हम इतनी इज्जत और प्यार करते हैं पर बाहर............शायद इमोश्नल होना घर पर ज़रुरी हो जाता है और बाहर प्रैक्टिकल एप्रोच रखना ज्यादा बेहतर.....

दुख मुझे तब भी होता है जब किसी शहीद की अनदेखी होती है.......सूखे के हालात हो जाते हैं.....बाढ़ में ज़िंदगिया बर्बाद हो जाती हैं.....और हमारे नेता टैंट लगवाकर......लाउडस्पीकर का इंतज़ाम कर पूरी सब्जी,हलुवा बंटवाते हैं....वोटों की खातिर......

किसी विधवा की ज़िंदगी......और दूर बॉर्डर पर गए फौजी की बीवी का दर्द भी मुझे अपना सा ही लगता है.......अपनी आंखों के सामने किसी बूढ़ी मां को अपना जवान बेटा खोता हुआ देखा है.....इसलिए अब हर मां के आंसू मुझे भी भिगो जाते हैं.....और हां ....खुद अकेले रहते रहते....अकेलेपन का दंश कितना चुभता है ये भी बहुत अच्छी तरह जानती हूं.......पर इन सबका फिर भी इलाज़ नज़र आता है....लेकिन ग़रीबी उसका तो इलाज ही सिर्फ पैसा है......कैसे मिले इन बच्चों और बुज़ुर्गों को एक बेहतर ज़िंदगी......

मैंने यही रहते अपने समाज का आईना भी करीब से देखा है....देखा है लोगों को ....ग़रीबों की ज़िंदगी कैश करवाते.....कितने एनजीओ..इन सबकी सहायता के नाम पर करोंड़ों की एड हज़म कर जाते हैं.... कितनी समाजसेविकाएं और समाज सेवक अपना चेहरा कितना पाक साफ रखना चाहते हैं.........बड़ी बड़ी बातें करते हैं पर नतीजा सिर्फ सिफर....तो दर्द का तो कोई ओर छोर ही नहीं मिलता मुझे ......बहुत मन कसमसाता है कुछ करने का .....पर सिर्फ चंद रुपए किसी की ज़िंदगी नहीं बना पाएंगे ये मैं जानती हूं.....पर हां उन सारी तकलीफों से गुज़रने वाले बच्चों,बुज़ुर्गों और ज़रुरतमंद लोगों के लिए दुआ ज़रुर करती हूं कि मेरे पास तो अभी फिल्हाल इतने साधन नहीं......जो मैं इन सबके लिए चांद तारे तोड़कर ला सकूं.....एक सवेरा इनकी राहगुज़र बिछा सकूं......पर जो लोग कर सकते हैं,वो कुछ ज़रुर सोंचे.....और थोड़ा सा,बस थोड़ा सा अपना दिल बड़ा कर इनके बारे में ज़रुर सोंचे......

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

वरुण का इमोशनल अत्याचार...

वरुण गांधी....फिल्हाल तो नाम ही काफी है....किसी खास इंट्रोडक्शन की जरुरत नहीं है....एक बात तो माननी पड़ेगी....वरुण गांधी ने अपनी पहचान बना ही ली......हां ये बात ज़रुर अलग है.....कि शायद वो खुद ही ये नहीं जानते होंगे....कि ये पहचान क्या उन्हें उनका भविष्य दिला पाएगी या फिर.....। ये हम सभी जानते हैं कि कुछ वक्त पहले तक वरुण की पहचान महज़ मेनका गांधी के बेटे के रुप में ही थी........लेकिन आज उनके घटिया और विवादास्पद भाषण को सुनने के बाद....कोने कोने में उनकी पहचान हो चुकी है.

लेकिन एक बात समझ नहीं आयी.......रासुका लगने से पहले भड़के-भड़के से नज़र आने वाले वरुण जेल से बाहर आने के बाद थोड़े कम भड़कीले नज़र आए....उनके भाषण में वो भड़काऊ पन तो था...लेकिन थोड़ा दबा-दबा.....और हां वरुण ने जेल से बाहर आकर जो पहला भाषण दिया.....वो फुल इमोश्नल देसी ड्रामे से लबरेज़ था...जिसमे वो एक बच्चे की तरह अपनी मां के पल्लू से भी चिपके नज़र आए.... लेकिन साथ ही वरुण ने मंच से एक मंजे हुए राजनीतिज्ञ की तरह पीलीभीत की जनता से गुहार लगाई ....कि उनकी मां के आंसुओं का जवाब जनता देगी....बहुत बढ़िया वरुण.....कर्म तुम करो....मां तुम्हारी रोए....और हिसाब किताब करे जनता....जनता इतनी भोली भी तो नहीं....जो यूंही तुम्हारी बातों में आ जाए........

वरुण गांधी...वो गांधी जिसकी जड़ों में झांकने पर पुरानी राजनीतिक गलियां तो नज़र आती हैं......लेकिन अफसोस.....वो गलियां.... वरुण को राजनीतिक गलियांरों में पांव रखने की हसरत को पूरा नहीं करा पाती......

वरुण के साथ जो हो रहा है.....उसे वरुण वक्त रहते समझ नहीं पा रहे हैं....और ये नासमझी कहीं उन्हें डुबो ना दे.....वरुण गांधी ने जिस वक्त ये भड़काऊ भाषण देकर उन्माद फैलाया था...उस समय बीजेपी ने बड़ा आश्वस्त करते हुए उनके ऊपर अपना हाथ रखा था.....लेकिन उसके बाद की उनकी रैली में सारा नज़ारा एकदम अलग और स्पष्ट था....भाषण के बाद वरुण को बीजेपी के पोस्टर ब्वाय के रुप में प्रोजेक्ट किया गया...नरेन्द्र मोदी के साथ साथ झंडो और बैनरो पर भी उन्हें जगह मिली..... ....लेकिन शायद वरुण जेल से बाहर आने के बाद बदले हुए हालात देख और समझ नहीं पाए....जेल से बाहर आने के बाद तुरन्त होने वाली रैली से हिंदुत्व को दर्शाने वाले सारे पोस्टर और बैनर्स गायब थे.....

हिंदुत्व के बहाने एक बार फिर बीजेपी ने उन्हें अपना मुखौटा बनाने की कवायद तो की...और हो सकता है कि आगे भी करे.....लेकिन वरुण गांधी के नामांकन के वक्त....बीजेपी के किसी भी बड़े नाम ने अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराने में ही अपनी भलाई समझी....लेकिन इतने पर भी वरुण को अपनी खोखली नींव की पहचान उजागर नहीं हो पायी....वरुण या मेनका की पेशानी पर फिल्हाल तो बल पड़ते नज़र नहीं आते लेकिन अगर यही हालात रहे तो ये ज़रुर है कि वरुण कहीं राजनीतिक बिसात पर पड़े एक प्यादे के रुप में ना रह जाएं....फिल्हाल तो वरुण गांधी.....बीजेपी के गांधी के तौर पर प्रोजेक्ट किए जा रहे हैं और घूमघूमकर धुंआदार प्रचार भी कर रहे हैं.....हिंदुत्व का चेहरा बनते ....भगवा रंग में डूबे....

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

आडवाणी....अस्सी की उम्र और प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश.....आखिर क्यों....??

एक ज़माना हो गया....आडवाणी को राजनीति में अपने बाल सफेद करते ....आज आडवाणी किसी भी सूरत में प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं.....हालांकि आडवाणी की ये इच्छा बरसों से उनके सीने में दबी हुयी थी.....जो मौका नहीं मिलने पर एक टीस में परिवर्तित होती चली गयी.....आडवाणी के साथ विडंबना ये है कि वो अपनी उम्र के अस्सीवें दशक में हैं......और वो ये बात भी बखूबी जानते हैं.....कि अभी नहीं तो कभी नहीं......

क्योंकि कल किसी ने नहीं देखा....और कल के सपने की वजह से वो आज को खोना नहीं चाहते ....आडवाणी क्या चाहते हैं और क्या नहीं.....हालांकि इस बात से जनता को निजी तौर पर कोई सरोकार नहीं है.....सरोकार है तो महज़ उनके अब तक के हिसाब किताब से.....।

आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने की हसरत का सफर बरसों पहले से ही शुरु हो जाता है..जब आडवाणी संघी थे.....संघ से शुरुवात करने वाले आडवाणी....बीजेपी की नींव रखने वाले नामों में शुमार हैं....हमेशा ही अटल बिहारी वाजपेयी का दांया हाथ बनकर रहने वाले आडवाणी ने अपनी पकड़ राजनीति में हमेशा ही मज़बूत बनाकर रखी....

ये बात अलग है कि आडवाणी का दामन बहुत ज्यादा दागी भी नहीं और बहुत पाक साफ भी नहीं.....वो आडवाणी ही थे.....जिनकी उमाभारती (फिल्हाल हाशिए की राजनीति में पड़ीं) के साथ खुशी का जश्न मनाते तस्वीरें पूरी दुनिया के अखबारों में छपी थी ....जब बाबरी मस्जिद को ढहाया गया था.....वो भी आडवाणी ही थे.....जो मंच से जयश्रीराम की हुंकार लगाते थे....और अपनी हाईटेक रथयात्रा के जरिए पूरे देश में घूम-घूम कर रामलहर का उन्माद फैला रहे थे और बीजेपी के लिए वोट बैंक मज़बूत कर रहे थे....बीजेपी उनका ये उपकार कभी नहीं भूलेगी....रामलहर के उन्माद के बाद ही आडवाणी की पूरे देश में तीखी और सक्रिय भूमिका निकलकर सामने आयी....वो जनता से सीधे तौर पर जुड़े और उनकी भावनाओं को बखूबी कैश करवाया......

आडवाणी पर कंधार कांड का भी दाग है...कुछ परोक्ष और कुछ अपरोक्ष रुप से इसका दंश वो आज भी झेल रहे हैं......इसके अलावा भी आडवाणी विवादों में एक बार फिर फंसे.....जब उन्होंने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान अपने आप को सेक्यूलर बनाने की कोशिश में बैठे बिठाए संघ से दुश्मनी मोल ले ली...आडवाणी ने वहां जिन्ना की तारीफ में कसीदे पड़े औऱ इधर संघ ने उनसे हाथ खींच लिए......भारतीय राजनीति की बिसात पर संघ की ये खटास थोड़ी महंगी पड़ी और राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष नियुक्त कर दिए गए.......

इसके अलावा आडवाणी आज के वक्त के मुताबिक चलने में भी माहिर माने जाते हैं...उन्हें अपनी निजी ज़िंदगी को मीडिया के ज़रिए कैश करवाने में कोई गुरेज़ नही हैं...
आडवाणी फिल्मों के शौकीन हैं.....ब्लॉग लिखते हैं.....अपनी बेटी को सबसे करीब कहते है....ये सारी बातें मीडिया के ज़रिए ही बाहर आती रहती हैं...

आडवाणी बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन रिटायरमेंट और उम्र के मसले पर चुप्पी साधते हैं....आज के युवा समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले नए चेहरों जैसे राहुल गांधी से मुकाबला करने को सिर्फ राजनीतिक प्रतिद्विन्दिता करार देते है.....

आडवाणी भाषण तो बहुत मुखर होकर देते हैं....युवा भारत में घुलना मिलना भी पसंद करते हैं पर कहीं ना कहीं शायद वो ये भूल जाते हैं....या समझ नहीं पाते....कि आज का भारत उन्मादी नहीं है.....वो भावुक होकर वोट नहीं देता है....उसे उन पुराने गड़े मुर्दों से कोई सरोकार नहीं है.....क्योंकि आज का युवा ज्यादा विकसित....प्रतिभाशाली और युवा भारत का प्रतिनिधित्व करता है....वो मतदान के गिरते प्रतिशत को भी नहीं समझ पाते ....वो ये भी नहीं समझ पाते कि वोट डालने के लिए पप्पू अभियान चलाने पड़ते हैं....जनता बदल चुकी है...।

आडवाणी आज बाकी राजनीतिक लोगों के काले धन को भारत वापस लाने का सवाल खड़ा कर हमदर्दी या एक रैशनल वोट चाहते हैं तो वो ये क्यों भूल जाते हैं कि वो खुद भी उसी जमात का ही एक हिस्सा है....जिसे हम मौकापरस्त बिरादरी के नाम से भी जानते हैं....और जिस हम्माम में सभी नंगे होते हैं.....आडवाणी ये क्यों भूल जाते हैं...कि जनता उनके दामन को पाक साफ मानेगी और उनकी लच्छे दार बातों में आकर ये सवाल नहीं उठाएगी....कि क्या स्विस बैंक में उनका कोई एकाउंट नहीं....क्या उन्होनें कभी काला धन नहीं कमाया.....क्या उन्होंने कभी वो काम नहीं किए...जिनके लिए राजनीति की गलियां बदनाम मानी जाती हैं.....

हालांकि राजनीति में सच्चाई की कोई कसौटी नहीं....फिर भी आडवाणी चाहते हैं कि जनता उन्हें चुनें....उन्हें अपना वोट दे....और उनकी बरसों पुरानी सुलगती इच्छा को मूर्त रुप देकर उन्हें हिंदुस्तान का तख्तोताज़ सुपुर्द करे........आखिर क्यों...??

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

संजय दत्त....

वक्त हमेशा ही इंसान को अपनी कसौटी पर परखता रहता है…ये सब जानते हैं....सिवाए मुन्नाभाई के......जीहां मुन्ना भाई यानि संजय दत्त.....बार-बार कड़ी से कड़ी कसौटी पर उतरने के बावजूद वो ये सच्चाई समझना नहीं चाहते या फिर अंजान बनने की एक्टिंग में मसरुफ हैं.....कुछ भी हो उनके हालात पर तरस तो आता ही है.....।

सुनील दत्त की छत्रछाया में रॉकी से खलनायक और खलनायक से मुन्नाभाई तक का सफर तो संजय दत्त ने खूब किया....संजय दत्त शायद ये भूल जाते हैं कि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि एक खुली किताब है.....वो एक ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं.....जिसमें हिंदुस्तान की जनता को नशा मिलता है....सिनेमा हमारे समाज की इच्छाओं और कुंठाओ दोनों को दिखाता है...और संजय दत्त उसी दुनिया से आते हैं।

हांलाकि फिल्मी दुनिया में एक सफल सफर तय करने के बाद संजय दत्त का राजनीति में उतरना कोई बड़ी बात नहीं....इसके पहले भी कई और फिल्मी हस्तियों ने गाहे-बगाहे राजनीति का दामन थामा ही है....हालांकि कितनों की किस्मत राजनीति मे चमकी ये भी जनता को याद दिलाने की जरुरत नहीं..।

सत्ता का नशा किसी भी दौलत और ग्लैमर से ज्यादा बढ़ा होता है....ये बात संजय दत्त के ज़रिए हम एक बार फिर देख रहे हैं.....संजय दत्त जिस तरह की लफ्फाज़ी और बयानबाजी कर रहे हैं....ये उनकी राजनीतिक कच्ची उम्र का पर्याय जरुर बताती है....लेकिन राजनीति में ही इसे मानसिक दिवालिएपन से कम नहीं आंका जा रहा है...संजय दत्त तो फिल्मी इंसान है इसलिए शायद रील और रियल लाइफ में फर्क करना अक्सर भूल जाते हैं....लेकिन जिन्हें संजयदत्त ने अपना सरमाया बनाया है....वो कहीं संजय की डोर संभाले हैं...ये दिखता है और साफ नज़र आता है कि संजय दत्त महज़ एक राजनीतिक प्यादा बनकर रह गएं है...।

संजय दत्त ना केवल अपना व्यक्तित्व हल्का बना रहे हैं.....बल्कि अपने पिता की राजनीतिक विरासत और छवि भी धूल में मिला रहे हैं.....संजय ये बखूबी जानते हैं कि उनकी ये कारगुज़ारियां उनकी बहन प्रिया दत्त को भी चोट पहुंचा रहीं है....पर बावजूद इसके राजनीति का ये नशा संजय को अपनी पूरी गिरफ्त में ले चुका है।

क्या हमें ये नज़र नहीं आता कि संजय के ये भड़काऊ और अविकसित बयान.....चाहें वो बीएसपी सुप्रीमो मायावती को जादू की झप्पी और पप्पी देने की बात हो या फिर अपनी मां नरगिस के मुसलमान होने की बात का तड़का लगाकर थोड़ी बहुत सांप्रदायिकता की आंच और फैलाने की कवायद हो.....महज़ स्टंटबाज़ी लगती है।

सवाल ये है कि क्या संजय को वाकई जनता की सेवा ही करनी थी...अगर जवाब हां है तो इस राजनीतिक स्टंट की क्या ज़रुरत थी.....या फिर हम इसे ये माने की उन्हें भी बाकी बाहुबलियो और आपराधिक छवि के लोगों की तरह महज़ राजनीतिक संरक्षण की जरुरत भर थी....जिसे अमर सिंह ने बांहे फैलाकर उनका स्वागत कर अपने बड़े दिल का उदाहरण पेश किया..........

क्या जनता वाकई इतनी बेवकूफ है.......
शायद हां.....शायद नहीं.....
लेकिन इतना तो तय है कि संजय को इसका जवाब आने वाले वक्त में खुद-ब-खुद मिल जाएगा।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

राजनीति और हम........

भारतीय राजनीति के महत्वपूर्ण दौरों मे से एक इस वक्त चल रहा है....महासंग्राम कहें....चुनावी पर्व कहें....समर का आगाज़ कहें या फिर लोकतन्त्र का महापर्व....

बहुत सारे लोगों ने बहुत सारे नाम दिए हैं.......लेकिन एक बहुत ही सहज और सरल बात सिर्फ इतनी है....कि ये वक्त है जम्हूरियत को पहचानने का ....एक आम...छोटे और इन प्रपंचो से दूर रहने वाले व्यक्ति की वोट की ताकत का.......जो किसी भी नेता की किस्मत का पालनहार होता है........

राजनीति को समझने के लिए इसके अंदर जाने की ज़रुरत नहीं पड़ती.....बाहर से भी ये उतनी ही गंदी नज़र आती है.....जितनी अंदर से है.....राजनीति अपने आप में अधूरा सा शब्द लगता है क्योंकि मुझे इसमें नीति जैसी कोई बात नज़र ही नहीं आती.....

हर बार चुनावी संग्राम छिड़ने से पहले....लगभग सभी दल.....अपना अपना मैनिफेस्टों निकालते है....कि वो जनता के लिए.....फलां-फलां काम करेंगे....रियाएतें देंगे......लेकिन हर बाऱ....लगभग हर बार....ये चुनावी घोषणा पत्र....चुनाव के निपटते ही ....कहीं विलीन होते नज़र आते हैं....वो सारे लोकलुभावन वादे जो हर पार्टी का नुमायन्दा करता है....कहीं भी नज़र नहीं आते.......

नज़र अगर कुछ आता है तो वो है सिर्फ मसल और मनी का पावर गेम......जिसके पास जितना ज्यादा पैसा.....जितने ज्यादा बाहुबली....समझो उसकी जीत की संभावना उतनी ही ज्यादा.....साथ ही अगर कैंडिडेट के साथ माफिया या फिर कोई और आपराधिक प्रकरण जुड़ा हुआ है.....तब तो समझ लो कि उसकी पौ-बारह......

आज सीना चौड़ाकर जो बाहुबली खड़े होते हैं.....उनकी कोई गलती नही है....गलती सिर्फ और सिर्फ उस ग़रीब और दबी कुचली मानसिकता वाली जनता की है.....जो जूते खाने की आदी है.....जो इन जैसे लोगों को अपना मसीहा मानती है.....जो अपनी ही ताकत से अंजान है और ...जिसने उन्हें उस कुर्सी तक पहुंचाया...जहां से वो दूसरों के सीने पर पांव रखकर खड़े होने की औकात रखते हैं......अगर ये सच नहीं होता तो आज डीपी यादव....मुख्तार अंसारी....बबलू श्रीवास्तव....अफजल अंसारी.... शहाबुद्दीन ..... तस्लीमुद्दीन....और आनन्द मोहन सिंह अपनी औकात जरूर पहचानते.....

राजनीति में भी हालांकि वक्त लगातार बदल रहा है.....आज प्रवीण तोगड़िया,विनय कटियार या साध्वी ऋतम्भरा का जादू फिर से नहीं चल पाएगा.....भले ही वरुण गांधी ने उन्माद को एक बार फिर भड़काया है....एक बार फिर से बीजेपी को हिंदुत्व का मुद्दा दिया है.....लेकिन फिर भी हालात थोड़े से जुदा हैं.....आज एक बार फिर से राम लहर का उन्माद नहीं फैलेगा.....चाहें नरेन्द्र मोदी आएं या फिर आडवाणी.....उस चुनावी जनसभा में लोग नारे ज़रुर लगा सकते हैं.....लेकिन वोट की गारंटी कोई नही देता....और ये बात सबकी समझ मे भी आ रही है......

आज का भारत ज्यादा पढ़ा-लिखा है.....आज का भारत ज्यादा उन्मुक्त है....समझदार है....आज वो भारत नहीं है जहां महिलाएं बमुश्किल अपना मुकांम पाती थीं.....आज के हिंदुस्तान में सिर्फ हिंदी,हिंदु,हिदुस्तान का नारा वाजिब नहीं है....क्योकि आज भारतीय बाहर भी अपना परचम लहरा चुके हैं.......आज हम चांद तक पहुंच सकने मे फक्र महसूस करते हैं......

आज के भारतीय वरुण गांधी पर हंस सकते हैं....क्योंकि उन्हें वरुण गांधी के भीतर दबा फ्रस्टेशन नज़र आता है.....जो विरासत में गांधी नाम मिलने के बावजूद कुछ नहीं मिलने और कर सकने का मलाल दर्शाता है.......साथ ही दिखाता है कि बीजेपी एक बार फिर अवसरवादिता का खेल खेलने को आतुर है.....

अगर आज के भारत में बदलाव नहीं आया होता तो आज ...चिंदंबरम....नवीन जिंदल.....और आडवाणी के ऊपर जूते-चप्पल नहीं पड़े होते....यही वो आक्रोश है जो नेताओं के भीतर एक डर को पैदा कर रहा है.....कि आज अगर जूते चप्पल पड़ सकते हैं तो फिर कल क्या हो सकता है.......

और हां जनता में नेताओं के प्रति नॉन सीरियस एटीट्यूड भी आ चुका है....क्योंकि जब राबड़ी देवी चुनावी मंच से गाली गलौज करती हैं.....तो हमें हंसी आती है....क्योंकि इन सब बातों से सिर्फ उनका बैकग्राउंड और अवसाद नज़र आता है....इसीलिए आज नरेन्द्र मोदी के बुढ़िया-गुड़िया प्रकरण के बाद सबको उम्मीद थी कि शायद अब इस क्रम में पुड़िया भी जुड़ जाए.....

नेताओं को अगर लगता है कि चुनाव में ग्लैमर का तड़का लगाएंगें तो गलतफहमी दुरुस्त कर लें क्योंकि एक सुनील दत्त के अलावा कोई और ऐसा नाम अब तक नज़र नहीं आता जिसने ईमानदारी के साथ कुछ किया हो.....(दक्षिण को छोड़कर)...जिस वक्त गोविंदा ने राम नाईक को हराया था तो बड़ी उम्मीदें थीं....वहां की जनता की.....कि विरार का ये छोरा ज़रुर जनता की सेवा करेगा.....लेकिन गोविंदा जी भी फिल्हाल नोट प्रकरण में अपनी साख गंवा चुके है.......

किसी भी गलतफहमी में रहने वाले ये नेता भूल जाते हैं कि लोग इन्ही की वजह से आज वोट डालने आना....अपना टाईम वेस्ट करना समझते हैं.....आज लोगों को जागरुक करने के लिए अवेयर नेस प्रोग्राम चलाने पड़ते हैं.....युवाओं को आकर्षित करने के लिए...पप्पू का सहारा लिया जाता है....आखिर क्या है ये सब...

तो अलग अलग तरह के रंग देखने को तो मिलते हैं इस बेरंग और गंदी राजनीति में लेकिन.....किसी भी नेता से इंद्रधनुषी भविष्य की उम्मीद करना कल की तरह आज भी बेमानी लगता है......कोई भी पार्टी ऐसी नहीं जिसके दामन पर दाग नहीं लेकिन एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में आज भी किसी को कोई गुरेज़ नहीं....